It has been a long time since I have been pushed to go beyond just sharing a story. Then again when Zee News decides your father is anti-national, it becomes in every way possible a special occasion. It would be pointless to offer a defence of any sort, cause it is not required.
Instead I am sharing the poem. Please do read it and share it:
- 'धर्म में लिपटी वतन परस्ती क्या क्या स्वांग रचाएगी
- मसली कलियाँ, झुलसा गुलशन, ज़र्द ख़िज़ाँ दिखलाएगी
- यूरोप जिस वहशत से अब भी सहमा सहमा रहता है
- खतरा है वह वहशत मेरे मुल्क में आग लगायेगी
- जर्मन गैसकदों से अबतक खून की बदबू आती है
- अंधी वतन परस्ती हम को उस रस्ते ले जायेगी
- अंधे कुएं में झूट की नाव तेज़ चली थी मान लिया
- लेकिन बाहर रौशन दुनियां तुम से सच बुलवायेगी
- नफ़रत में जो पले बढे हैं, नफ़रत में जो खेले हैं
- नफ़रत देखो आगे आगे उनसे क्या करवायेगी
- फनकारो से पूछ रहे हो क्यों लौटाए हैं सम्मान
- पूछो, कितने चुप बैठे हैं, शर्म उन्हें कब आयेगी
- यह मत खाओ, वह मत पहनो, इश्क़ तो बिलकुल करना मत
- देश द्रोह की छाप तुम्हारे ऊपर भी लग जायेगी
- यह मत भूलो अगली नस्लें रौशन शोला होती हैं
- आग कुरेदोगे, चिंगारी दामन तक तो आएगी'
-गौहर रज़ा
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